आशा दीदीयों की मदद से ही रुक पाएंगी नॉन-कम्युनिकेबल डिसीज

आशा दीदीयों की मदद से ही रुक पाएंगी नॉन-कम्युनिकेबल डिसीज

नरजिस हुसैन

भारत में पिछले कुछ सालों में सार्वजनिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में तेजी से आए बदलावों को महसूस किया गया है। पहले जहां देश में मृत्यु दर का बड़ा कारण संक्रामक रोग होते थे वहीं अब गैर-संक्रामक रोगों से मरने वालों का ग्राफ बढ़ा है। गैर-संक्रामक यानी नॉन कम्युनीकेबल डिजिस (NCD) से आज करीब हर साल 60 लाख लोग अपनी जान गंवा रहे हैं। शहरीकरण की दौड़ में जिस तेजी से बेकाबू होता खान-पान, तंबाकू औऱ शराब की लत, वर्जिश या कसरत की कमी और नींद की बदलती आदतों के चलते ये बेहद मुश्किल जान पड़ रहा है कि देश 2025 तक मृत्यु दर को कम करने का 25 प्रतिशत भी राष्ट्रीय लक्ष्य हासिल कर पाएगा। विश्व आर्थिक मंच (World Economic Forum) का एक अनुमान है कि अगर NCD को लगातार काबू करने की कोशिश नहीं की गई तो भारत 2030 से पहले ही 4.58 खरब डॉलर के घाटे पर बैठा होगा।

पिछले ही महीने The George Institute for Global Health संस्था ने आंध्र प्रदेश में किए अपने एक शोध (https://human-resources-health.biomedcentral.com/articles/10.1186/s12960-019-0418-9) में बताया कि अगर सरकारें आंगनवाड़ी दीदियों (जिन्हें आशा दीदी के नाम से भी जाना जाता है) को थोड़ा और ट्रेनिंग और वेतन बढ़ा दें तो तेजी से NCD पर लगाम लगाई जा सकती है। बल्कि इन दीदीयों को रक्तचाप (ब्लड प्रेशर) और डायबिटीज के कार्यक्रमों से भी जोड़ना चाहिए। ये कम्युनिटी हेल्थ वर्कर देश की स्वास्थ्य प्रणाली की रीढ़ मानी जाती हैं। और सच में यही तो वे कड़ी होती हैं जो करीब 25-45 साल की स्थानीय औरतों को जागरुक कर स्वास्थ्य प्रणाली से जोड़ना है।

2005 में भारत सरकार ने राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के तहत आशा दीदीयों को शामिल किया था। हालांकि इससे पहले इनका काम घर-घर जाकर मातृत्व और शिशु स्वास्थ्य से संबंधित सेवाएं देना, परिवार नियोजन के बारे में बताना, सुरक्षित गर्भाधान और प्रसव, टीकाकरण जैसी सुविधाओं के बारे में बताना होता था जो अब उससे भी ज्यादा हो गया है। इनके दायरे में अब National Program for cardiovascular diseases, diabetes, cancer and stroke (NPCDCS) भी शामिल हो गया है। अब आशा दीदीयां जो स्वास्थ्य सुविधाएं ग्रामीण जनता तक पहुंचाती है सरकार ने उनका वेतन 60 और 40 की भागीदारी से तय किया था। यानी 60 फीसद केन्द्र सरकार देगी और 40 प्रतिशत राज्य सरकारें लेकिन, ऐसा ईमानदारी से असल में हो नहीं पाया। और इनको महीने के आखिर में आधा-अधूरे वेतन से ही गुजारा करना पड़ता है।

हालांकि, शोध यह भी कहता है कि केन्द्र और राज्य सरकारों को चाहिए कि बड़े लक्ष्य हासिल करने के लिए या तो और ज्यादा आशा दीदीयों को नौकरी दी जाए या मौजूदा आठ लाख को इन अतिरिक्त बीमारियों के बारें में ट्रेनिंग दी जानी चाहिए ताकि ये ब्लड प्रेशर या NCD के बारे में घर-घर तक जानकारी, जागरुकता और स्वास्थ्य सुविधा पहुंचा सकें। भारत जैसे बड़े और भारी जनसंख्या वाले देश में सरकार सबसे छोटी युनिट तक इन्हीं मददगारों के जरिए तमाम किस्म की सुविधआएं अपनी जनता तक पहुंचाती है।

आखिर इन्हीं दीदीयों की मदद से देश में मातृत्व मृत्यु दर और शिशु मृत्यु दर में गिरावट आई है। गांव की इन्हीं दीदीयों ने सुरक्षित प्रसव, स्तनपान और टीकाकरण की सुविधाएं औरतों को घर बैठे हर मौसम और हर स्तर पर दी। यह बात भी सच है कि देश में प्रशिक्षित यानी ट्रेंड मेडिकल स्टाफ की कमी बहुत ज्यादा है और जो हैं भी वे ग्रामीण इलाकों में जाकर काम करना पसंद नहीं करते। ऐसे में आशा दीदीयों का दायरा अगर थोड़ा और बढ़ा दिया जाए तो कुछ गलत नहीं होगा।

ये दीदीयां काफी अ्च्छी तरह अपने कामों को अंजाम देती हैं लेकिन जरूरी सुविधाओं से ये खुद महरूम ही रहती हैं। दक्षिण भारत में तो आशा दीदीयों का फिर भी बेहतर स्तर है लेकिन उत्तर भारत में इन्हें बहुत ज्यादा इच्छा शक्ति के साथ काम करना पड़ता है। सरकार को इनसे भेदभाव का रवैया खत्म करना चाहिए और इनके कामों को भी पहचान और इज्जत देनी होगी। ट्रेनिंग और बेहतर सुविधाएं मिलने से इनके काम का स्तर भी बढ़ेगा और इनका मनोबल भी क्योंकि सरकार सुविधाएं तो दे सकती है और देती भी है लेकिन, उन्हें आखिरी नागरिक तक पहुंचाने की जिम्मेदारी समाज के इन्हीं लोगों पर होती है।

 

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